यह अभियांत्रिकी,
शायद मानवीय सोच की कोई त्रुटि,
सिद्धांतों को तिरस्कृत कर जो,
तकनीक के भ्रमजाल में फंसी,
यह अभियांत्रिकी...
पर सोचूं मैं यही,
श्याम थीं जब शामें,
और अन्धकार की थी घड़ी,
किसी रीतिविरुद्ध के हाथों से छूटकर,
प्रबल बिजली सी चमकी,
यह अभियांत्रिकी...
प्रिय के आत्मीयता को ताक रहीं,
तर आँखें,जब पत्र को पूछ रहीं,
किसी रीतिविरुद्ध के विचारों से निकलकर,
दूरभाष की ध्वनि बन, खनकी,
यह अभियांत्रिकी...
मंजिल पर पहुँचने की जल्दी,
पर जब चाल थक पड़ी,
किसी रीतिविरुद्ध के प्रयासों से,
यातायात लेकर थी खड़ी,
यह अभियांत्रिकी...
पर सोंचुं मैं यह भी,
यह अभियांत्रिकी,
जब नीतियों को लाँघ गयी,
मानवता को अनदेखा कर,
संकटों को सार चुकी,
किस रीतिविरुद्ध के इरादों से हारकर,
संभलेगी,
यह अभियांत्रिकी...
-सौरभ कंठ
(१६-३-२०११)